लेख
हिंदुत्व का दर्शन क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो अपनी तार्किक विचार श्रृंखला में उत्पन्न होता है, परंतु उसकी तार्किक श्रृंखला के अलावा भी इसका इतना महत्वहै कि इसे बिना विचार किए छोड़ा नहीं जा सकता। इसके बिना हिंदुत्व के उद्देश्यों और आदर्शों को कोई भी समझ नहीं सकता।
इस संबंध में यह बिल्कुल साफ है कि इस तरह का अध्ययन करने से पहले विषय की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करना और साथ ही उससे संबंधित शब्दावली को परिभाषित करना भी बहुतआवश्यक है।
आरंभ में ही सवाल पूछा जा सकता है कि इस प्रस्तावित शीर्षक का क्या अर्थ है? क्या 'हिंदू धर्म का दर्शन' और 'धर्म का दर्शन' शीर्षक एक समान है? मेरी इच्छा है किइसके पक्ष और विपक्ष पर अपने विचार प्रस्तुत करूँ, लेकिन वास्तव में मैं ऐसा नहीं कर सकता। इस विषय पर मैंने बहुत-कुछ पढ़ा है, लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ किमुझे 'धर्म के दर्शन' का स्पष्ट अर्थ अभी तक नहीं मिल पाया है। इसके पीछे शायद दो कारण हो सकते हैं। पहला है कि धर्म एक सीमा तक निश्चित है लेकिन दर्शनशास्त्रमें किन-किन बातों का समावेश किया जाए, यह निश्चित नहीं (मुनरो के इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एजुकेशन में 'फिलासफी' शीर्षक के अंतर्गत लेख देखें)। दूसरे, दर्शन और धर्मपरस्पर विरोधी न भी हों, उनमें प्रतिस्पर्धा तो अवश्य ही हैं, जैसा कि दार्शनिक और अध्यात्मवादी की कहानी से पता चलता है। उस कहानी के अनुसार, दोनों के बीच चलरहे वाद-विवाद के दौरान अध्यात्मवादी ने दार्शनिक पर यह दोषारोपण किया कि यह एक अंधे पुरुष की तरह है, जो अंधेरे कमरे में एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जो वहाँहै ही नहीं। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप दार्शनिक ने अध्यात्मवादी पर आरोप लगाया कि वह 'एक ऐसे अंधे व्यक्ति की तरह है, जो अंधेरे कमरे में एक काली बिल्ली को खोजरहा है, जबकि बिल्ली का वहाँ कोई अस्तित्व है ही नहीं, और वह उसे पा लेने की घोषणा करता है।' शायद 'धर्म का दर्शन' शीर्षक ही गलत है, जिसके कारण उसकी सहीव्याख्या करने में भ्रम पैदा होता है। प्रोफेसर प्रिंगले- पेटीसन (दि फिलासफी आफ रिलीजन आक्सफोर्ड, पृ. 1-2) ने धर्म के दर्शन का अर्थ समझाते हुए जो अपनाबुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त किया है, वह मुझे उसके निश्चित विषय के बहुत करीब लगता है।