माँ का आज देहांत हो गया या शायद कल हुआ हो; कह नहीं सकता। आश्रम से आए तार में लिखा है—“आपकी माँ चल बसी, अंतिम संस्कार कल। गहरी सहानुभूति”, इससे कुछ पता नहीं चलता, हो सकता है यह कल हुआ हो।
ब्रूनर का मानना है कि पाठ्यक्रम सामग्री का दिलचस्प विधी शिक्षार्थियों को प्रेरित करने का सबसे अच्छा तरीका है। यह परीक्षा के लिए सीखने के बजाय चीजों को सीखने की वास्तविक प्रेरणा है। शिक्षा का उद्देश्य स्वायत्त शिक्षार्थियों (यानी, सीखने के लिए सीखना) का निर्माण करना होना चाहिए। उन्होंने बच्चों की सोच और समस्या-समाधान कौशल पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे विभिन्न स्थितियों में स्थानांतरित किया जा सकता है।
भाषा मानव जाति के लिए प्राथमिक है। यह सबसे आवश्यक संज्ञानात्मक क्षमताओं में से एक है जो मनुष्य को समाज में आचरण करने के लिए सशक्त बनाता है। यह उतना ही जैविक कार्य है जितना कि एक सामाजिक कार्य है। यह स्वाभाविक रूप से प्राप्त (एक्वायर) किया जाता है, लेकिन इसमें महारत हासिल करने के लिए सावधानीपूर्वक मार्गदर्शन और शिक्षण की आवश्यकता होती है। इस लेख में जहां भी संभव हो भाषाई और समाजशास्त्रीय सिद्धांतों के आलोक में प्रोफेसर कृष्ण कुमार की पुस्तक “बच्चे की भाषा और अध्यापक” (1996) की समीक्षा की गई है। यह लेख प्रत्येक भाषा शिक्षक के लिए पुस्तक की प्रासंगिकता को सही ठहराने का एक प्रयास है। यह पुस्तक शैक्षणिक तकनीकों में कई आसान सुधारों के बारे में बात करती है जो छोटे बच्चों के बीच बेहतर भाषा समझ और अधिग्रहण सुनिश्चित कर सकते हैं। एक स्पष्ट शैली में लिखी गई यह पुस्तक एक शिक्षक की भूमिका और एक शिक्षक के दृष्टिकोण के छात्र के मानस पर पड़ने वाले भारी प्रभाव पर जोर देती है।
पिछले कई वर्षों से, कई सिद्धांतकारों ने बच्चों के सीखने और बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के बारे में कई अलग-अलग सिद्धांत दिए हैं। ऐसे ही एक सिद्धांतकार थे लेव. एस. वायगोत्स्की। उन्होंने संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत दिया, जिसे अक्सर सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत के रूप में जाना जाता है, जिसमें उन्होंने अनुभूति के विकास में सामाजिक संपर्कयाअतः क्रिया (social interaction) की मौलिक भूमिका पर जोर दिया। वह पहले मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने यह जांच की कि सामाजिक संपर्क संज्ञानात्मक विकास को कैसे प्रभावित करते हैं। वायगोत्स्की का सिद्धांत इस विचार पर केंद्रित है कि संज्ञानात्मक विकास काफी हद तक सामाजिक अंतःक्रियाओं और सांस्कृतिक अनुभवों का परिणाम है। उनका मानना था कि सीखना भाषा और सांस्कृतिक उपकरणों के आंतरिककरण के माध्यम से होता है, जो शिक्षकों, माता-पिता और साथियों जैसे अधिक जानकार अन्य लोगों के साथ बातचीत से सुगम होता है। उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक शिक्षा विकास से पहले होती है। उनका काम बच्चे के विकास पर सांस्कृतिक और पारस्परिक प्रभावों के महत्व पर प्रकाश डालता है।
यह शोध पत्र जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के संदर्भ में बच्चों के खेल की भूमिका की जांच करता है। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को एक प्रक्रियात्मक यात्रा के रूप में देखा, जिसमें खेल एक महत्वपूर्ण घटक होता है। पियाजे के अनुसार, खेल बच्चों को न केवल शारीरिक और सामाजिक कौशल विकसित करने में मदद करता है, बल्कि यह उनके मानसिक विकास और तर्कशक्ति को भी बढ़ावा देता है। इस अध्ययन में विभिन्न प्रकार के खेलों, जैसे अभ्यास खेल, प्रतीकात्मक खेल और नियम-आधारित खेल, के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है और यह बताया गया है कि प्रत्येक खेल चरण बच्चों के मानसिक और संज्ञानात्मक विकास को किस प्रकार प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त, यह शोध यह भी दर्शाता है कि खेल बच्चों के समस्या-समाधान कौशल, सामाजिक व्यवहार और आत्म-नियंत्रण में कैसे योगदान करता है। पियाजे के सिद्धांतों के माध्यम से यह समझा जा सकता है कि खेल न केवल बच्चों के विकास का एक आवश्यक हिस्सा है, बल्कि यह शिक्षा में नवाचार और समग्र विकास के लिए भी एक प्रभावी विधि साबित हो सकता है। यह शोध पियाजे के दृष्टिकोण से खेल की भूमिका को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है और यह बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में खेल के महत्व को रेखांकित करता है।
धर्म एक सामाजिक शक्ति है, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। हेबर्ड स्पेंसर ने धर्म की अत्यंत सार्थक व्याख्या की है, जिसके अनुसार, 'किसी जाल की बुनाई में यदि इतिहास को ताना माना जाए तो धर्म एक ऐसा बाना है, जो उसके प्रत्येक स्थान पर आड़े आता है।' यह एक सच्चाई है, जो प्रत्येक समाज से संबंधित हैं, परंतु भारतीय इतिहास के ताने को धर्म न केवल हर स्थान पर बाना बनकर आड़े आता है, बल्कि हिंदू मन के लिए वह ताना भी है और बाना भी। हिंदू जीवन में धर्म उसके प्रत्येक क्षण को नियमित करता है। वह उसे आदेश देता है कि अपने जीवनकाल में कैसा आचरण करे तथा उसकी मृत्यु के उपरांत उसके शरीर का क्या किया जाए। धर्म उसे यह बताता है कि स्त्री के साथ मिलने वाला सुख कब और कैसे प्राप्त करे। जब बच्चा पैदा हो जाए, कौन-कौन से धर्मानुष्ठान किए जाने हैं, उसका क्या नाम रखा जाए, उसके सिर के बाल कैसे काटे जाएँ, उसको पहला भोजन कैसे कराया जाए, वह कौन-सा व्यवसाय करे, किस स्त्री के साथ विवाह करे, यह बात उसे धर्म बताता है। वह किसके साथ भोजन करे, कौन-सा अन्न खाए, कौन-सी सब्जी विधिवत् है और कौन-सी निषिद्ध, उसकी दिनचर्या कैसी हो, कितनी बार वह भोजन करे और कितनी बार प्रार्थना करे, धर्म इन सबका नियमन करता है।